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भारत के पहले सशस्त्र क्रांतिकारी: वासुदेव बलवंत फड़के



परतंत्र भारत में मां भारती के अनेक वीरों ने भरत भू को स्वतंत्र कराने हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी। उन्हीं वीरों की श्रंखला में एक नाम है वासुदेव बलवंत फड़के जिन्हें “आदि क्रांतिकारी” के नाम से भी जाना जाता है। वे अंग्रेजों के विरुद्ध भारत के ससस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले पहले क्रांतिकारी थे। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध महाराष्ट्र प्रांत में 7 जिलों में अपनी सेना तैयार कर ली थी और कुछ दिनों के लिए पुणे शहर अपने अधीन कर लिया था। जिससे ब्रिटिश साम्राज्य में हाहाकार मच गया था। जब उनको गिरफ्तार कर लिया गया तो दंड स्वरूप उनको काला पानी की सजा सुनाई गई, जिसमें अंग्रेजी सैनिकों के अत्याचारों के विरुद्ध भूख हड़ताल करके अपने प्राणों की आहुति दे दी।


आइए जानते हैं ऐसे महान क्रांतिकारी का जीवन परिचय-

वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर 1845 में महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र के शिरोडन गांव में हुआ। यह क्षेत्र पर्वतों तथा वनों से ढका हुआ है। विद्यार्थी जीवन से ही वासुदेव 1857 की क्रांति से प्रभावित थे। आजीविका अर्जन हेतु वासुदेव ने 15 वर्ष तक पुणे तथा महाराष्ट्र के अलग अलग जिलों में नौकरी की इसके विपरीत उनके पिताजी यह चाहते थे कि वे उनके साथ रहकर ही गांव में कोई व्यवसाय करें।


1870 में जब इन्होंने गोविंद रानाडे का राष्ट्रवादी भाषण सुना तो वे इस से बहुत प्रभावित हुए। भाषण का मुख्य विषय था “अंग्रेजों द्वारा भारत में आर्थिक लूट” वासुदेव बलवंत फड़के ने अपने जीवन का दृष्टिकोण भी इसी ओर मोड़ लिया था। और एक संगठन के निर्माण करने की सोची जिसमें उन्होंने पर्वत क्षेत्र की विशेष प्रकार की जातियो को लेकर कार्य करने का सोचा जो लूटमार में विशेषता रखते थे । उन्होंने अंग्रेजों द्वारा आर्थिक लूट का मुंहतोड़ जवाब देने की ठान ली थी। कालांतर में उन्होंने अंग्रेजी अधिकारियों के यहां आर्थिक लूट करके अनेकों शस्त्र खरीदें जिससे उनका अंग्रेजों में खासा खोफ बन गया था। और वे भारत के पहले सशस्त्र क्रांतिकारी बने गए थे।


जातिवाद का जहर घुला देखकर फड़के ने निर्णय लिया सभी जातियों को एक करना ही किसी उत्तम संगठन का निर्माण कर सकता है। वह जातिवाद से उठकर स्वराज का निर्माण करना चाहते थे। शुरुआत में लोगों ने उनसे एकमत होने के विषय पर नाराजगी जताई थी तब उन्होंने भगवान श्रीराम को आदर्श मानते हुए एक संगठन का निर्माण किया और उसे “रामोशी” नाम दिया । उन्होंने महाराष्ट्र में कोली,भील, धांगड़ जातियों को लेकर महाराष्ट्र के 7 जिलों में अपनी सेना तैयार की और कुछ दिनों के लिए पुणे को पूर्ण तरह अपने अधीन कर लिया।


उन्होंने अनेकों जगह पर क्रांतिकारियों के लिए व्यायाम शाला बनाई जिसमें उनको शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता था। जहां ज्योतिबा फुले और उनके साथी तथा लोकमान्य तिलक जैसे प्रमुख क्रांतिकारीयो ने भी शस्त्र चलाना सीखा था।

जब अंग्रेजी शासकों में उनका भयंकर प्रकोप हो गया था। अंग्रेजों तथा उनके बीच एक झड़प में उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति से अंग्रेज अफसरों को मारा तथा भवन को आग लगा दी जिसके पश्चात उन पर अंग्रेजी सरकार द्वारा 50000 का इनाम रखा गया। तत्पश्चात उन्होंने अंग्रेजी अफसर रिचर्ड के सिर काटने पर ₹75000 का इनाम रख दिया था। ऐसे निडर तथा साहसी फड़के को देख ब्रिटिश साम्राज्य भी भौचक्का रह गया।


20 जुलाई 1879 में लूटमार के दौरान वे बीमार हो गए थे और एक मंदिर में विश्राम कर रहे थे। जहां उनको अंग्रेजी अफसरों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और उनके विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। जिसके बाद उनको काला पानी की सजा सुना दी गई। उसके बाद उन्हें हेडन कारागृह में भेज दिया गया। जहां से वे भाग निकले उसके बाद वहीं के स्थानीय लोगों ने उनको वापस अंग्रेजों के हवाले करवा दिया। जिससे वे हताश हो गए तथा जेल में खाना पीना छोड़ दिया और 17 फरवरी 1883 में उन्होंने खुद ही अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली ।

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